
आंवला नवमी के दिन पूजा करतीं महिलाएं.
दहेज प्रथा: भारत में एक तरफ बेटियों को ‘पराया-धन’ समझा जाता है. वहींं दूसरी तरफ परिवार की इज़्ज़त और शान को संभालने की जिम्मेदारी भी उसी के कंधों पर लाद जी जाती है.
- News18Hindi
- Last Updated:
December 23, 2020, 11:45 AM IST
भारत में एक तरफ बेटियों को ‘पराया-धन’ समझा जाता है. वहीँ दूसरी तरफ परिवार की इज़्ज़त और शान को संभालने की जिम्मेदारी भी उसी के कंधों पर लाद जी जाती है.
कहते हैं यदि बेटा सुशील हो तो वह अपने घर का चिराग होता है, मगर यदि बेटी सुशील हो तो वह दो-दो घरों को रोशनी से भर देती हैं. यदि बेटा बिखेरता है, तो बेटी बांधती है. जहां बेटी खुद एक अनमोल खजाना है वहीँ बेटियों के साथ दहेज़ रुपी दीमक चिपका हुआ है जो पिछड़े तबके से लेकर पढ़े-लिखे और सभ्य समाज तक व्याप्त है.
दहेज़ आखिर है क्या?पुराने समय में शादी ब्याह के वक्त नए जोड़े को वधू के परिजनों व रिश्तेदारों से अनेक उपहार एवं गृहस्थी का साजो-सामान दिया जाता था जिस से उन्हें अपने नए जीवन के पहले पायदान में कदम रखते वक़्त किसी भी प्रकार की परेशानी ना हो. वक्त के साथ ससुराल में लड़की का मान-सम्मान और प्रतिष्ठा इन्ही उपहारों के माध्यम से जानी जाने लगी. यहां तक कि लड़की के स्वभाव व गुण को अनदेखा कर, उसकी कीमत इन्हीं वस्तुओं से की जाने लगी. धीरे-धीरे मां बाप के मन में, लड़की के पैदा होने के साथ ही उसकी शादी और दहेज की चिंता और बढ़ गई क्योंकि बिना दहेज़ या कम दहेज़ लेकर आने वाली लड़कियों के साथ ससुराल की तरफ से आए दिन पीड़ादायक व्यवहार किया जाने लगा. रोज नए और संगीन मामले सुनाई देने लगे जिसमें दहेज़ ही मुख्य कारण होता. इसी प्रताड़ना से अपनी बच्चियों को बचाने के लिए गरीब से गरीब और अमीर से अमीर घरों के मां-बाप दहेज़ के लिए अपना सब कुछ लगा देते हैं.
कई ऐसे माता-पिता भी हैं जो बेटे की तरह बेटियों को भी पढ़ाते हैं. जाहिर है उनकी सोच दोनों को बराबर मानने की होती है. यही कारण है कि ऐसे लोग दहेज देने का विरोध करते हैं और इस सोच के कारण उनकी बेटी की शादी में देरी भी होने लगती है. दुर्भाग्य से समाज का बड़ा तबका ऐसे मां-बाप को ही दोषी करार देता है. यह तबका मानता और कहता है कि बेटी की शादी में दहेज तो देना ही होगा. ऐसी सोच भी क्या कि उसके कारण बच्ची का भविष्य खराब हो जाए.
वक़्त बदलता रहा और ज़माना कहां से कहां आ गया, मगर दहेज नामक सेंध आज भी बालिकाओं के जीवन को नर्क समान बनाए हुए है. कई लोग तो अपनी बेटी को सिर्फ इसलिए नहीं पढ़ाते क्योंकि शादी के बाद उसे संभालना तो घर बार ही है. इसलिए वही पैसे वो उसके दहेज के लिए जमा करते रहते हैं. आजकल शादी ब्याह एक शुभ अवसर न होकर व्यपार जैसा लगता है जिसमें मां-बाप अपने आंगन के फूल को किसी और के घर में सजा देने की कीमत तक अदा करते हैं. दहेज़ के नाम पर बहुओं से बुरा सुलूक करने वाली बेटों की माएं शायद यह भूल जाती हैं की वह भी कभी दूसरे घर से आई हुई बहुएं ही थी जो प्रेम और अपनेपन की आस लिए अपना मायका छोड़ आई थी.
भारतीय संविधान में दहेज के खिलाफ कई सख्त कानून बनाए गए हैं, परन्तु जब तक बेटियों को बोझ और बहुओं को पराया समझा जाएगा तब तक यह दहेज़ के सौदागर बहु-बेटियों की ज़िन्दगी से खिलवाड़ करते रहेंगे. ‘न ये घर मेरा, न वो घर मेरा, बाबा आखिर किस आँगन मेरा बसेरा?’
(डिस्क्लेमर: यह लेखक के निजी विचार हैं)